दो बहनें
शर्मिला
स्त्रियाँ दो जाति की होती हैं, ऐसा मैंने किसी-किसी पंडित से सुना है।
एक जाति प्रधानतया माँ होती है, दूसरी प्रिया।
ऋतुओं के साथ यदि तुलना की जाय तो माँ होगी वर्षाऋतु यह जल देती है, फल देती है, ताप शमन करती है, ऊर्ध्वलोक से अपने आपको विगलित कर देती है, शुष्कता को दूर करती है, अभावों को भर देती है।
और प्रिया है वसन्तऋतु। गभीर है उसका रहस्य, मधुर है उसका मायामंत्र। चञ्चलता उसकी रक्त में तरङ्ग लहरा देती है और चित्त के उस मणिकोष्ठ में पहुँचती है जहाँ सोने की वीणा में एक निभृत तार चुपचाप, झंकार की प्रतीक्षा में, पड़ा हुआ है; झंकार-जिससे समस्त देह और मन में अनिर्वचनीय की वाणी झंकृत हो उठती है।
शशांक की स्त्री शर्मिला 'माँ' जाति की है। बड़ी-बड़ी हैं उसकी शान्त आँखें, धीर-गंभीर चितवन। सजल श्यामल नवीन मेघ के समान कमनीय है उसकी स्निग्ध और साँवली कान्ति; माँग में सदा सिंदूर की अरुण रेखा शोभती रहती है, साड़ी की किनारी काली और चौड़ी, दोनों हाथों में मगर के मुँहवाले मोटे-मोटे कंगन–जो साज-सिंगार की भाषा कम बोलते हैं, सोहाग की अधिक।